उसका जाना ऐसे लग रहा है जैसे मानो घर का सबसे शरारती बच्चा घर छोड़ के चला गया हो। सबकी नाक में दम करके रखने वाला, नाकों चने चबवा देना वाला बच्चा। उसका जाना सिर्फ़ उसका जाना ही नहीं था, हमारी दुनिया में से एक हिस्से का चले जाना था। एक बेहद ही प्यारा और खूबसूरत हिस्सा।
कल मग़रीब की नमाज़ के वक़्त हमने शोला को हमारे घर के बाहर, जहाँ गाड़ी पार्क करते है, जहाँ एक नीम का पेड़ भी है, वहाँ दफ़ना दिया था। नीम के पेड़ के ठीक नीचे। मैं और पापा थे, मम्मी की आने की हिम्मत नहीं हुई थी। हमने उसे एक लाल कलर के एक कपड़े से, जो कभी मेरा टॉप हुआ करता था, जो पहले शोला शबनम की बेडशीट हुआ करती थी, उसके एक सीरे से लपेट दिया था। इसके साथ हमने रोटी के कुछ टुकड़े और हरा दाना भी रख दिया था। इसके अलावा तो वो और कुछ खाता ही नहीं था। उसके लिए कुछ दुआ माँगी, प्रणाम किया और वापस आ गए।
रात को सोने जाने से पहले मैं उस बालकनी गई जहाँ से वो नीम का पेड़ दिखता था। उसके जाने का दुख था पर मन इस बात से खुश था कि वो हमारे आस-पास ही है, जब भी मन चाहे उससे मिल सकते है, उससे बातें कर सकते है। नानी बताती है कि नीम के पेड़ पास रहने से अच्छा होता है। साफ़ हवा निकलती है उससे। अब उस नीम के पेड़ से शोला की हवा, उसकी महक़, उसकी खुशबू भी आया करेगी जो मन ही मन हमें गुदगुदाया करेगी। उसमे जो कोपलें फुटेंगी, नए पत्ते आने की वजह से जो पुराने पत्ते हमारी बालकनी में आकर गिरेंगे, उस पेड़ की निंबोलियों को जब हम खाएँगे उन सब में शोला की याद होगी, उसका प्यार होगा। अब वो नीम का पेड़ हमें और अपना-सा लगने लगा है।
मुझे आज भी याद है वो दिन जब शोला और शबनम हमारे घर पहली बार आए थे। क्राफ़ॉर्ड मार्केट से लाई थी मम्मी उन्हें, भाई के कहने पर उसी की ज़िद की वजह से कछुए हमारे घर आए थे। वो दिन था 21 नवंबर 2018। दोनों का नामकरन होना बचा था, बाबू कहके सिर्फ़ पुकारते थे हम। दोनों डरे हुए से थे, सहमे से थे, बच्चे थे, छोटे थे। मुझे आज भी याद है कि कैसे शब्बो को सहलाने पर वो मुँह अंदर कर लिया करती थी पर शोला का मजाल नहीं कि मुँह अंदर घुमाए। ना, बिलकुल ना । उल्टा जितना अंदर करने की कोशिश करो, उतनी ही फ़ुर्ती से वो हमारी ऊँगली को बहार ढकेलने की कोशिश करता था।
कुछ दिन ऐसे ही बीते। फिर किसी रोज़ ऐसे ही टी.वी. का चैनल चेंज करते वक़्त एक फ़िल्म आ रही थी, शोला और शबनम। मुझे क्या लगा पता नहीं पर सोच लिया था कि नाम तो भारतीय ही होगा और जोड़े वाला। तो बस और क्या था। मैंने फ़ैसला सुना दिया कि मम्मी कछुओं का नाम शोला शबनम होगा। शोला लड़के का और शबनम लड़की का। पहले तो मेरे फ़ैसले की खिल्ली उड़ाई गई और ये तक कहा गया कि नहीं, नाम बदल दिया जाएगा पर शायद धीरे-धीरे सबको इस नाम की आदत सी हो गई थी। जब भी उनका परिचय और लोगों से करवाते थे तो सब नाम सुनके हँसते थे और उनके साथ हम भी हँस लिया करते थे और क्या।
उसी साल दिसंबर के महिने में हम लोग घूमने के लिए केरल गए हुए थे। तो शोला शब्बो को हमने कुछ दिन के लिए अपने कज़िन मामा के यहाँ छोड़ दिया था। भाई उनके बेटे से बहुत नफ़रत करता है इसलिए वो उन्हें सौपने को तैयार नहीं था पर इसके अलावा कोई चारा भी नहीं था। ख़ैर उन्होंने उनका अच्छा ध्यान रखा था।
अगले साल गर्मी की छुट्टियों में हमने तय किया कि दोनों को साथ ननिहाल लेके जाएँगे। ये उनकी दूसरी और पहली सबसे लंबी रेल यात्रा होने वाली थी। वो दोनों ट्रेन में अक़सर खाना नहीं खाते। ननिहाल में मई पहले महिने तो सब ठीक था पर ठीक 1 जून को, भाई के जन्मदिन से एक दिन पहले, एक हादसा हो गया था, जिसका दुख हमें आज भी होता है। मम्मी ने शोला और शब्बो को नीचे खोला हुआ था, क्योंकि तो अक़सर पानी में कम और नीचे खुले में ज़्यादा रहना पसंद करते हैं। कुछ एक-आध घंटे बाद उन्हें खाना देने के लिए खोजा गया तो शोला तो वहीं जगह पे था पर शब्बो कहीं नहीं मिल रही थी। पूरा अंदर-बाहर, बराम्दे, चबुतरे के पास सब जगह खोज लिया था पर कोई खोज खबर नहीं। मम्मी का मुँह रोने जैसा बन चुका था। जब शोला को निकाला गया तो देखा कि छुछूंदर ने उसका एक पैर काट लिया था और उससे खून बह रहा था। ननिहाल गाँव-सा ही था और वहाँ वेट मिलना मुश्क़िल था, एक घंटा की दूरी पर शहर जाना पड़ता। शब्बो का अभी तक कुछ पता नहीं चला। मेरा और मम्मी का रो-रो के हाल बेहाल हो चुका था। नानी और मामी काफ़ी-काफ़ी बार आके समझाती।
शाम को जो मौसी (दाई माँ) काम करने आती थी, उससे पूछताछ हुई। उसने कहा था कि हाँ उसे झाड़ू लगाते वक़्त एक चलने वाला कीड़ा दिखा था, उसने कीड़ा समझ के बहर फ़ेक़ दिया। मैंने पूछा था कि फिर फ़ेक़ने के बाद, उन्होंने कहा कि सूअर ने खा लिया। मैंने चीढ़ के पूछा कि आपको कछुआ और कीड़ा में कोई फ़र्क़ नहीं दिखा और जब आपने फ़ेक़ा तो आप वहीं सुअर खाने तक का इंतेज़ार क्यों कर रही थी। उनके पास कोई जवाब नहीं था। हमें पता था उसने शब्बो को चोरी कर लिया है। 1 जून 2019 का तारीख़ याद रहेगा। अगले दिन भाई का जन्मदिन जैसे-तैसे मनाया गया।
उस वक़्त बाबा की तबीयत भी ठीक नहीं थी और हमारे घर की ज़मीन का भी कुछ बड़ा मसला हो गया था तो तय किया गया कि मम्मी एक महिने के लिए और ननिहाल में रुक जाए। हम 4–5 जून को बंबई वापस आ गए थे, वो ठीक एक महिने बाद आई थी। बंबई वाले घर में मैं, भाई और पापा थे। शोला काफ़ी अकेला महसूस करता था और शब्बो के बिना हमारा मन भी नहीं लगता था। फिर सर्वसम्मती से तय किया गया कि उसी प्रजाती की एक और शब्बो लाई जाए। वो थोड़ी बड़ी थी पर पिछली वाली की जैसे ही शरमिली थी और अव्वल दर्जे की सोतुड़ी, आलसी नंबर वन। समय के साथ-साथ उसके साथ भी मन लगने लगा, चीज़ें ठीक होते चली गई। हालाँकि मम्मी को पुरानी शबनम ज़हन में ज़रूर आती रही होगी पर सब यहीं कामना करते थे कि वो जहाँ कहीं भी हो ठीक हो, सुरक्षित हो।
27 जुलाई 2022। हर सुबह की ही तरह मम्मी ने उन्हें नींद से जगाने के बाद प्यार किया, खेला, उन्हें झूला झुलाया। सुबह 10:30 के क़रीब नाश्ता दिया। 11:30–11:45 के क़रीब बाहर मीठी, गुनगुनी-सी धूप आई थी तो उन्हें उनके घर में कपड़े के ऊपर रख दिया। मेरा मम्मी से किसी एक बात पे झगड़ा हो गया था तो वो 8–10 दिन से मेरे से बात नहीं कर रही थी। इसलिए शोला शब्बो को बाहर रखा हैं, ये बात उन्होंने मुझे नहीं बताई थी। 12:30 के आस-पास वो आई और दोनों को धूप से निकाल कर उनके कमरे में छोड़ आई। वो फ़ोन पे किसी से बात कर रही थी इसलिए उन्होंने शब्बो पे ध्यान दिया पर शोला पे उनकी नज़र नहीं पड़ी। मेरी भी सिर दर्द हो रहा था तो मैं आँखों पे आईस मास्क लगा के लेटी थी। आधे घंटे बाद मम्मी चिल्लाते हुए आती है और कहती है कि ‘बाबू देखो न शोला आँख नहीं खोल रहा है।’ मैंने झट से मास्क खोला पर मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। उन्होंने कहा कि हिल नहीं रहा है, जहाँ छोड़ के आई थी वही पे था। मैंने जल्दी से आँखों पे पानी की छींटे मारी, ताकी कुछ देख सकूँ। वो शांत, स्थिर-सा पड़ा हुआ था। ऐसा पहले भी हो चुका था जब वो नींद से जागने के बाद आँखें नहीं खोलता था या बिस्तर से कूदने के बाद ढुलक के रह जाता था। हमने उसकी आँखों पे पानी की छींटे मारी, उसके मुँह और शेल को थपथपाया। उसे उल्टा शेल के बल रखा, पर ना हो वो सीधा हुआ, ना ही उसने आँखें खोली। मैंने तब मम्मी की ओर देखा, उनका चेहरा ठीक वैसा ही हो गया था जब शोला के पैर कटने और शब्बो के घुम जाने पे हुआ था। उनकी निशच्छल आँखों को देखने की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी। वो रोने लगी थी। उन्हें देख कर मुझे रोना आ रहा था। हमने उसे जगाने की भरसक़ कोशिश की। बाहर बारिश हो रही थी। मैं जैसे भी हालात में थी मैंने रेनकोट पहना और स्कूटी चालू की और उसे फ़ौरन वेट के पास ले गई। वेट ने चेक करने के बाद उसे मृत घोषित कर दिया था। मुझे अपने कानों पे यक़ीन नहीं हो रहा था। सुबह तक जो बच्चा खा-पी रहा था, खेल-कूद रहा था वो अचानक से ऐसे कैसे जा सकता है। कोई लक्षण वगैरा कुछ नहीं। डॉ. ने कहा है कि ऐसा तापमान चेंज या इंटरनल शौक वगैरा की वजह से भी हो सकता है। मैं क्लीनिक में बैठ के खूब देर तक रोती रही, ये जानते हुए कि मैं मम्मी के सामने ऐसे नहीं रो सकती थे। उनके सामने मैं इस क़दर से टूट नहीं सकती थी। मैंने शोला को हाथ में लेके खूब प्यार किया, उसे जगाने की कोशिश की, उससे बात की इस उम्मीद से कि शायद वो नींद में हो, अपने पैरों से अपनी आँखों को मले, धीरे-धीरे अपनी आँखे खोले और हर बार की तरह हमें फिर से डरा दे। पर इस बार उसने ऐसा कुछ नहीं किया, इस बार उसने अपनी आँखें नहीं खोली। इस बार उसने अपनी आँखें बंद कर ली, वो सो गया था, कभी नहीं जागने के लिए।
मैं जब शोला को घर लेके आई तो मम्मी ऐसी करुणा भरी आँखों से देख रही थी जैसे एक बच्चे को लगता है कि डॉ. अंकल के पास जाने से सब ठीक हो जाएगा। वो सबको ठीक कर देते है।
मैं और मम्मी फिर एक बार खूब रोए। बहुत। मुझे अभी भी ये लिखते वक़्त बुरा लग रहा है। मम्मी अपने आप को कोस रही थी कि उनकी वजह से हुआ है, वो धूप में नहीं रखती, तो शोला आज हमारे बीच होता। वो ख़ुद को मार रही थी और ब्लेम किए जा रही थी। मैंने उन्हें बहुत समझाया, मनाया। मैं और मम्मी अपने इतने दिनों के झगड़ो को भुला के रो रहे थे। मैं और मम्मी बरसों बाद एकदूसरे की बाहों में इकट्ठे रो रहे थे। उन्होंने मेरे एक पुराने लाल टॉप को फाड़ के उसका एक सिरा लिया और शोला को उसपे रख दिया, उसे हाथ में लेके काफ़ी देर तक रोई। फूट-फूट के रोई। मैं उनके सामने ऐसे नहीं रो सकती थी, मैं बाहर चली आई। बहुत समय बाद मैंने उनसे खाना खाने को कहा, आग्रह किया पर वो नहीं मानी। मेरे आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। मैं बालकनी में गई, वही बालकनी जहाँ से नीम का पेड़ दिखता है। अभी भी बरसात हो ही रही थी। वो बालकनी थोड़ी खुली क़िस्म की है, तो बरसता पानी वहाँ गिरता है। मैं बरसात में भींगने लग गई। मैं रो रही थी और भींग रही थी। जब मन उदास हो तो बारिश और अच्छी लगती है, उनमें आँसुओं का पता नहीं चलता। काफ़ी देर हो गई थी। मम्मी मुझे देखने आई और फिर कपड़े बदलने को कहा। दोपहर के 3 बज रहे थे। मैंने कपड़े बदला, बाल पोंछे और सो गई। मुझे नींद आ गई थी। जब उठी तो देखा सामने भाई पढ़ रहा था और किसी के फ़फ़क़-फ़फ़क़ कर रोने की आवाज़ आ रही थी। मैं हॉल में गई। मम्मी शोला को हाथ में लिए रो रही थी। उससे जागने के लिए कह रही थी। मना रही थी, पुचकार रही थी। वो इतना रो चुकी थी कि उनकी आँखे सूझ गई थी, उनके गले से ढंग से आवाज़ तक नहीं निकल रही थी। मैंने मम्मी को उठाया, शोला को कपड़े से ढ़का, मम्मी से मुँह धोने को कहा और उन्हें कॉफ़ी दी। एक कप कॉफ़ी पीके वो सोने चली गई।
शाम को पापा आए, शोला को खूब प्यार किया, उसे शब्बो से मिलाया। मम्मी उठ के हमारे पास आ गई। पापा ने मम्मी को चुप कराया, खूब समझाया। फिर मैं और पापा उसे पेड़ के नीचे दफ़ना आए और उसके लिए दुआएँ माँगी। मम्मी का रूम उस बालकनी से सटा हुआ है जहाँ से नीम का पेड़ दिखता है। मैं, मम्मी और पापा तीनों साथ में लेट थे। हम तीनों शोला को याद कर रहे थे, उसके शुरू से लेकर अंत तक के दिनों को याद कर रहे थे, हमें अपनी लापरवाही पर अफ़सोस हो रहा था कि चार सालों में एक बार भी उसको वेट से नहीं दिखाया (पर अब शब्बो के लिए ऐसा नहीं करेंगे)।
वो घर का सबसे शरारती सदस्य था पर मम्मी की आँखों का तारा था। शैतान और मस्तीखोर, घुमक्कड़ और आवारा। शब्बो तो एक कोना में जाकर बैठ जाती थी पर इनकी मजाल नहीं कि शांति से बैठे। रोज़ हर वक़्त का घूमना, दरवाज़े के पास टिके रहना, जैसे दरवाज़ा खुलने का बेसब्री से इंतेज़ार कर रहे हो कि कब दरवाज़ा खुले और मौका देख के इन्हें और पूरा घर देखने को मिले। कछुओं की सुनने की रेंज हमसे अलग होती हैं। हमारा कहा वो नहीं सुन सकते और उनका कहा हम। हालांकि वो वाइब्रेशन को समझते हैं और रिस्पॉन्ड करते हैं। अगर शोला बोल सकता था तो बड़ा गपोड़ी होता वो। उसका एक पैर कट गया था और दूसरे पैर में चोट लगने की वजह से सूझन आ गई थी पर उसके जज़्बे का कोई जवाब नहीं। अदम्य साहसी। उसके नैन-नक्ष बहुत प्रभावी थे। आँखें मोती के समान गोल थी, नाक का छेद ऐसा था मानो सूई से छेद किया हो, बटननुमा, नुकीला नाक। चेहरे पे एक अलग रंग की आबा थी। गालों के पास गुलाबी रंग के बिंदु ऐसे लगते थे जैसे वो ब्लश कर रहा हो।
जाने वाले को कोई रोक नहीं सकता। जिसका जाना तय है, सो तय है पर ये कि उसे हम अब कभी नहीं देख पाएँगे, उसका बहुत अफ़सोस होता है। कल सुबह मैं एक एफ़ एम सुन रही थी जिसमें वो आर जे अपनी कहानी सुना रहा होता है कि कैसे उसकी माँ अस्पताल में बीमार पड़ी थी और ना चाहते हुए भी माँ के कहने पर उन्हें घर लौटना पड़ा। अगले दिन खबर मिलती है कि माँ नहीं रही। उस समय उन्हें अफ़सोस हो रहा था कि क्यूँ घर आ गए, क्यूँ माँ के पास नहीं रुके। वैसा ही पछतावा मुझे हो रहा है कि काश सुबह से एक बार उसे देख लिया होता, मम्मी के धूप में रखने के बाद खुद उसे रूम में खोल देते। काश। कोफ़्त हो रही है बहुत।
खाना खाते वक़्त भी मम्मी की नज़रें इधर-उधर लगी रहती है, जिस-जिस जगह वो अक़सर होता था। कहती है कि, ‘अब कैसे कहेंगे कि दरवाज़ा आराम से खोलो, शोला पीछे होगा।’ या ‘दरवाज़ा बंद करो, वो भाग जाएगा। अब तो वो ही नहीं है।’ इतना कहते-कहते वो रो पड़ती है।
मैंने टैगोर और रूमी जैसे कई कवियों और लेखकों को पढ़ा है जिन्होंने अपनी कृतियों में मृत्यु को एक जगह दी है, एक खूबसूरत स्थान। मृत्यु को सुंदर तरीक़े से दर्शाया हैं। ये कविताएँ पढ़ने में भी अच्छी लगती हैं पर असल ज़िंदगी में इसके मायने को समझना, खुद पर लागू करना बहुत मुश्क़िल होता है। बहुत ही ज़्यादा। शोला का चले जाना एक खूबसूरत हिस्से का चले जाना है, उसकी शरारतों का, उसकी आदतों का साथ चले जाना है। दो ऐसे लोग जो एक दूसरी की भाषा को समझ नहीं सकते, एक-दूसरे के कहे को समझ नहीं सकते पर एक-दूसरे से लगाव महसूस करते हैं, जुड़ जाते हैं। वो ऐसे लोग प्यार को समझते हैं, प्यार की भाषा जानते हैं। और मोहब्बत का रिश्ता इस दुनिया में सबसे पाक़ और खूबसूरत रिश्ता होता है।
अभी रोना नहीं आ रहा बस शोला मेरी जान बहुत बुरा लगता है और तुम्हारी याद आती है, बेहिसाब आती है, विश्वास ही नहीं होता कि तुम यहाँ नहीं हो। पर तुम जहाँ कहीं भी हो खुश रहो, स्वस्थ रहो, खाओ-पियो और मस्त रहो। अपनी कछुआ बिरादरी के लिडर बनो। लव यू रे। भोत भोत भोत…