दीदी कहती थी, जो मछली मर जाती है, उसकी आँखों में झाकने से अपनी परछाईं नहीं दिखती। फिर मछली को अपने चेहरे के बिलकुल पास लाकर मैंने देखा तो मुझे उसकी आँख में धुंधली-धुंधली परछाईं दिखी। ठीक से समझ नहीं आ रहा था कि यह मेरी परछाईं थी या मछली की आँखों का रंग ही ऐसा हो गया था?
मछली की आँख पे इतना लंबा विवरण दे लेना और मछली की आँख के ज़रिए एक ज़रूरी बात को इतनी खूबसूरती से पेश करना। स्त्री पक्ष की इस गंभीर बात को इतने मामूली और सरल अंदाज़ में कहना। विनोद कुमार शुक्ल पे बहुत पहले कुछ लिखा था, जब उनकी पुअर रॉयल्टी को लेकर उनका एक विडिओ सामने आया था। उससे पहले यूट्यूब पे एकतारा इंडिया के तहत उनकी उपन्यास एक चुप्पी जगह का रेसिटेशन सुना था, उनकी ज़ुबानी और अभी उनकी लघु कहानी संग्रह की किताब, महाविद्यालय पढ़ी।
शुक्ल साब जो लिखते हैं, जैसा लिखता हैं, वो बेहद ही सरल होता है। एकदम ही आसान शब्दों में। कोई तीखे बड़े लफ़्ज़ों या मुहावरों का इस्तेमाल नहीं होता। पर उनके लिखे में एक जादू होता है। कौतूहल पैदा होने लगती है। पढ़ के ऐसा लगता है कि यार यह तो जादूई है। ग़ौर फ़र्माने वाली बात यह है कि यह जादू कोई भी फैन्सी कहानियों का हिस्सा नहीं होती। जायज़, उचित बात को चमत्कारी ढंग से सामने लाया जाता है। उनको पढ़ने के बाद मुझे कभी-कबार अपनी इस दुनिया में आने का जी ही नहीं करता, उनकी कहानियों का, उनके क़िस्सों का सुरूर बना रहता है, जो जल्दी खत्म होने की मांग ही नहीं करता। ऐसा ही नशा मुझे हिन्दी में निर्मल वर्मा और अंग्रेजी में रस्किन बॉन्ड को पढ़के आता है। निर्मल वर्मा की हाल ही में पिछली गर्मियों में कहानी संग्रह पढ़ी थी और मैं उनकी कहानियों में खो जाती थी या यूँ कहे तो डूब जाती थी। हालाँकि कुछ कहानी ऐसी भी होती थी जो समझ ही नहीं आती थी पर एक छोटे से वाकिए को भी कोई लेखक इतना विस्तार दे लेता है, इतने रोचक अंदाज़ में कह लेता है। तौबा-तौबा !! और हमारे लिए तो ऐसा सोच पाना भी कोसों दूर हैं। मैंने रस्किन की आखिरी किताब दी रूम ऑन दी रूफ़ पढ़ी थी, कोविड के शुरू के दिनों में। इसमे उपन्यास का प्रमुख किरदार, रस्टी जो कि एक एंग्लो-इंडियन है और अपने चाचा-चाची के साथ ही देहरादून में रहता है। चाचा-चाची के मना करने के बावजूद भी वो बाज़ार के लौंडों के साथ घूमता-फ़िरता है और अपनी ज़िंदगी में बंदिशें महसूस करता हैं। उसे अपने दोस्त और उनके परिवारवालों के बीच सुकून मिलता है। वो अपने घर से भाग जाता है और अपने दोस्त के साथ रहने लगता है। इसी दौरान अपने एक दूसरे दोस्त कि माँ के साथ प्यार कर बैठता है। इस उपन्यास के दौरान मैं काफ़ी रोई थी, मैं रस्टी से काफी जुड़ाव महसूस करने लगी थी। यह बॉन्ड की पहली उपन्यास है।
अब लोग यह कहने लगेंगे कि ऐसे लेखकों को छोड़ के यथार्थ और समाज से रूबरू करवाते लेखकों को पढ़ो। यह जादू वगैरा जैसी चीज़ों में कुछ धरा नहीं। और वाकई मैं इस तरह की भी उपन्यास बहुत ही मन के साथ पढ़ती हूँ पर बस कही पे सुन रखा था कि कभी विनोद कुमार शुक्ल के लिखे को पढ़ना, ज़्यादा मनुष्य बनते नज़र आओगे अपने आप को। तो बस और क्या, एक जागरूक नागरिक होने के साथ-साथ एक प्यारा इंसान बनना भी तो ज़रूरी है न यारों। क्यूँ?